M.A.2nd Sem, KU-Women's Studies, Paper-3, Unit-IV (दलित नारीवाद)Class Notes
Unit-4: दलित नारीवाद
By
Dr. Farzeen Bano
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दलित: अर्थ, एवं संकल्पना का उदय
दलित, जिसका संस्कृत में अर्थ है "टूटा हुआ" या "बिखरा हुआ", एक शब्द है जिसका उपयोग उन समुदायों को संदर्भित करने के लिए किया जाता है जिन्हें ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रखा गया था और हिंदू जाति व्यवस्था के भीतर "अछूत" माना जाता था। जबकि "अछूत" शब्द अब भारत में कानूनी रूप से प्रतिबंधित है, दलित शब्द को इन समुदायों के भीतर कई लोगों ने समानता और सामाजिक न्याय के लिए अपने संघर्ष के प्रतीक के रूप में अपनाया है। यहाँ "दलित" शब्द के प्रमुख पहलुओं का विवरण दिया गया है:
ऐतिहासिक संदर्भ:
- जाति व्यवस्था: पारंपरिक हिंदू सामाजिक पदानुक्रम ने समाज को चार मुख्य श्रेणियों या "वर्णों" में विभाजित किया: ब्राह्मण (पुजारी और विद्वान), क्षत्रिय (योद्धा और शासक), वैश्य (व्यापारी और व्यापारी), और शूद्र (मजदूर)। दलितों को इस व्यवस्था से बाहर माना जाता था, वे सबसे निचले पायदान पर थे और उन्हें गंभीर भेदभाव और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता था।
- अस्पृश्यता: दलितों को उनके पारंपरिक व्यवसायों की प्रकृति के कारण "अछूत" माना जाता था, जिन्हें अक्सर उच्च जातियों द्वारा अशुद्ध या प्रदूषित माना जाता था। इससे अलगाव, बुनियादी अधिकारों से वंचित होना और विभिन्न प्रकार के उत्पीड़न हुए।
कानूनी और संवैधानिक मान्यता:
- अनुसूचित जाति: भारत में, "दलित" शब्द का इस्तेमाल अक्सर "अनुसूचित जाति" (एससी) के साथ किया जाता है, जो कि भारतीय संविधान में इन ऐतिहासिक रूप से वंचित समुदायों को नामित करने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला आधिकारिक शब्द है।
- सकारात्मक कार्रवाई: भारतीय संविधान में ऐतिहासिक अन्याय को दूर करने और सामाजिक समावेश को बढ़ावा देने के लिए एससी के लिए शिक्षा, रोजगार और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में सकारात्मक कार्रवाई और आरक्षण के प्रावधान शामिल हैं।
सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व
- पहचान और सशक्तिकरण: दलित शब्द इन समुदायों के लिए पहचान और सशक्तिकरण का प्रतीक बन गया है, जो जाति-आधारित भेदभाव के खिलाफ उनके संघर्ष और उनके अधिकारों और सम्मान के उनके दावे का प्रतिनिधित्व करता है।
- दलित साहित्य और कला: दलित साहित्य और कला रूप दलित समुदायों के अनुभवों, संघर्षों और आकांक्षाओं को व्यक्त करने, प्रमुख आख्यानों को चुनौती देने और सामाजिक परिवर्तन को बढ़ावा देने के लिए शक्तिशाली माध्यम के रूप में उभरे हैं।
जारी चुनौतियाँ:
- कानूनी और सामाजिक प्रगति के बावजूद, दलितों को भारत में विभिन्न प्रकार के भेदभाव, हिंसा और सामाजिक-आर्थिक हाशिए पर धकेले जाने का सामना करना पड़ रहा है।
- गरीबी, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा तक पहुँच की कमी और लगातार सामाजिक कलंक जैसे मुद्दे दलित समुदायों के लिए महत्वपूर्ण चुनौतियाँ बने हुए हैं।
दलित शब्द और इसके ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व को समझना भारत में सामाजिक न्याय और समानता के लिए चल रहे संघर्षों को समझने के लिए महत्वपूर्ण है।
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दलित नारीवाद: संकल्पना और उत्पत्ति
परिचय
दलित नारीवाद (Dalit Feminism) मुख्यधारा के नारीवाद की आलोचना के रूप में उभरा, जिसने अक्सर उच्च जाति की महिलाओं के अनुभवों को प्राथमिकता दी और दलित महिलाओं के विशिष्ट मुद्दों को नज़रअंदाज किया। यह एक विशिष्ट नारीवादी विचारधारा है, जो जातिगत उत्पीड़न और लैंगिक भेदभाव दोनों को एक साथ संबोधित करती है। दलित महिलाओं को दोहरे शोषण का सामना करना पड़ता है—एक ओर वे जातिगत भेदभाव का शिकार होती हैं और दूसरी ओर पितृसत्ता के कारण लैंगिक असमानता का सामना करती हैं।
1. दलित नारीवाद की संकल्पना और उत्पत्ति
(i) मुख्यधारा के नारीवाद की आलोचना
- मुख्यधारा का भारतीय नारीवाद, विशेष रूप से 19वीं और 20वीं शताब्दी में, उच्च जाति की महिलाओं के अनुभवों पर केंद्रित था। दलित नारीवाद मुख्यधारा के नारीवाद की आलोचना करते हुए उभरा क्योंकि पारंपरिक नारीवादी आंदोलनों ने जाति को एक प्रमुख मुद्दे के रूप में शामिल नहीं किया।
- इसमें जाति-आधारित उत्पीड़न की अनदेखी की गई, जिससे दलित महिलाओं को अपने मुद्दों को अलग से उठाने की आवश्यकता महसूस हुई।
- उच्च जाति की नारीवादी चिंताएँ मुख्य रूप से घरेलू उत्पीड़न, शिक्षा और विवाह तक सीमित थीं, जबकि दलित महिलाएँ भयंकर सामाजिक बहिष्कार, छुआछूत, हिंसा और आर्थिक शोषण से जूझ रही थीं।
- यह अवधारणा उन दलित महिलाओं की आवाज़ को सामने लाने का कार्य करती है जो सदियों से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हाशिए पर थीं।
- दलित महिलाओं के अनुभवों को ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के संदर्भ में देखा जाता है, जो मुख्यधारा की उच्च जाति की महिलाओं की समस्याओं से अलग होते हैं।
- 1990 के दशक में दलित नारीवाद को एक सशक्त आंदोलन के रूप में पहचाना जाने लगा, जब दलित महिलाओं ने अपनी विशिष्ट समस्याओं को अलग से संबोधित करने की मांग की।
(ii) दलित महिलाओं का दोहरा शोषण
- दलित महिलाओं को दोहरे शोषण (Double Discrimination) का सामना करना पड़ता है— -जातिगत भेदभाव (सामाजिक और आर्थिक रूप से उत्पीड़न)
- लैंगिक भेदभाव (पितृसत्ता और पुरुषवादी समाज में हाशिए पर रहना)
- दलित नारीवाद इन दोनों स्तरों पर महिलाओं के शोषण को समझने और बदलने का प्रयास करता है।
(iii) 1990 के दशक में दलित नारीवाद का उदय
- 1990 के दशक में दलित नारीवाद को एक सशक्त आंदोलन के रूप में पहचाना जाने लगा।
- दलित महिलाएँ महसूस करने लगीं कि उनकी समस्याएँ उच्च जाति की महिलाओं से अलग हैं और उन्हें अपने संघर्षों को अलग से परिभाषित करने की जरूरत है।
- इसी दौरान "ऑल इंडिया दलित महिला अधिकार मंच" (AIDMAM) जैसी संस्थाएँ उभरीं, जिन्होंने दलित महिलाओं के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई।
- 1990 के दशक में "दलित महिला सशक्तिकरण" आंदोलन उभरा, जिसमें महिलाओं ने अपने अधिकारों के लिए संघर्ष किया।
2. दलित नारीवाद की प्रमुख विशेषताएँ
I. जाति और पितृसत्ता का संयुक्त विश्लेषण – दलित नारीवाद केवल लैंगिक असमानता तक सीमित नहीं है, बल्कि जातिगत उत्पीड़न को भी महत्वपूर्ण मानता है।
II. अंतरविषयकता (Intersectionality) – यह विचार दर्शाता है कि जाति, वर्ग और लिंग की परतें एक-दूसरे से जुड़ी होती हैं और महिलाओं के अनुभवों को प्रभावित करती हैं।
III. सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार के खिलाफ संघर्ष – दलित नारीवाद समाज में मौजूद छुआछूत, सामाजिक बहिष्कार और आर्थिक उत्पीड़न को खत्म करने की मांग करता है।
IV. दलित पुरुषवादी संरचना की आलोचना – दलित नारीवाद, केवल ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की आलोचना तक सीमित नहीं है, बल्कि दलित समुदाय के भीतर मौजूद लैंगिक असमानता की भी आलोचना करता है।
दलित नारीवाद का प्रभाव और महत्व
- सशक्तिकरण: दलित नारीवाद ने दलित महिलाओं को अपने अधिकारों का दावा करने और उन संरचनाओं को चुनौती देने के लिए सशक्त बनाया है जो उन पर अत्याचार करती हैं।
- सामाजिक परिवर्तन: इस आंदोलन ने दलित महिलाओं के सामने आने वाली अनूठी चुनौतियों के बारे में जागरूकता बढ़ाने और सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन की वकालत करने में योगदान दिया है।
- अंतर्विभागीय परिप्रेक्ष्य: दलित नारीवाद ने अंतःविषयता के महत्व और उत्पीड़न के कई रूपों को संबोधित करने की आवश्यकता पर प्रकाश डालकर नारीवादी विमर्श को समृद्ध किया है।
3. दलित नारीवाद के प्रमुख विचारक और आंदोलन
(i) डॉ. भीमराव अंबेडकर और दलित महिलाओं के अधिकार
- डॉ. अंबेडकर ने दलित महिलाओं की शिक्षा, सामाजिक स्वतंत्रता और राजनीतिक भागीदारी पर ज़ोर दिया।
- उन्होंने हिंदू धर्म की जातिवादी व्यवस्था की आलोचना की और "मनुस्मृति" को नारी विरोधी ग्रंथ बताते हुए उसे जलाया। महिलाओं को समान अधिकार देने की वकालत की।
- 1927 में महाड़ सत्याग्रह के माध्यम से उन्होंने अछूतों के लिए सार्वजनिक जलस्रोतों के उपयोग के अधिकार की मांग की। इन आंदोलनों के माध्यम से उन्होंने जाति और पितृसत्ता की आलोचना की।
- 1956 में बौद्ध धर्म अपनाने के उनके निर्णय ने दलित महिलाओं को सामाजिक मुक्ति की राह दिखाई।
(ii) ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले
- ज्योतिराव फुले ने जाति-आधारित शोषण के खिलाफ लड़ाई लड़ी और महिलाओं की शिक्षा के महत्व को समझा।
- उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले भारत की पहली महिला शिक्षिका थीं, जिन्होंने बालिकाओं और दलित महिलाओं के लिए स्कूल खोला।
- सावित्रीबाई फुले को भारत में महिला शिक्षा की जननी कहा जाता है।
ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले ने दलित महिलाओं की शिक्षा और सामाजिक सुधार के लिए कार्य किया।
- यह आंदोलन जाति और लिंग दोनों के आधार पर होने वाले भेदभाव को संबोधित करता है, जिसे "अंतरविषयकता" (Intersectionality) कहा जाता है।
(iii) दलित महिला आंदोलन (Dalit Mahila Movement)
- "नरमदा बचाओ आंदोलन" और "ऑल इंडिया दलित महिला अधिकार मंच" (AIDMAM) जैसी संस्थाओं ने दलित महिलाओं की आवाज़ बुलंद की।
- 1995 में पहली बार दलित महिलाओं की एक स्वतंत्र सभा आयोजित हुई, जिसमें जातिगत भेदभाव के खिलाफ रणनीति बनाई गई।
4. दलित महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियाँ
(i) शिक्षा में भेदभाव
- दलित महिलाओं को स्कूलों और कॉलेजों में जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
- कई बार उन्हें उच्च शिक्षा से वंचित कर दिया जाता है, जिससे वे आगे बढ़ने में असमर्थ रहती हैं।
(ii) रोज़गार में असमानता
- दलित महिलाएँ अनौपचारिक क्षेत्र में कम वेतन और शोषण का शिकार होती हैं।
- कई क्षेत्रों में उच्च जातियों द्वारा उनके रोजगार के अवसर सीमित कर दिए जाते हैं।
(iii) सामाजिक और सांस्कृतिक बहिष्करण
- उच्च जातियों द्वारा सार्वजनिक स्थानों पर दलित महिलाओं का प्रवेश प्रतिबंधित किया जाता है।
- शादी, मंदिर, कुएँ, और अन्य सामाजिक गतिविधियों में भेदभाव आज भी मौजूद है।
(iv) जाति-आधारित यौन हिंसा
- दलित महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के मामले अधिक होते हैं, लेकिन उन्हें न्याय पाना कठिन होता है।
- पुलिस और न्याय व्यवस्था में जातिगत पूर्वाग्रह के कारण पीड़िताओं को न्याय मिलने में बाधा आती है।
(v) कानूनी न्याय और सुरक्षा की कमी
- अनुसूचित जाति/जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम (SC/ST Act) के बावजूद, दलित महिलाओं के मामलों में न्याय की प्रक्रिया धीमी होती है।
- सामाजिक भय और आर्थिक निर्भरता के कारण कई महिलाएँ कानूनी सहायता लेने से हिचकिचाती हैं।
5. दलित नारीवाद के समाधान और आगे की राह
- दलित महिलाओं की शिक्षा और कौशल विकास को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
- आरक्षण नीति का सही तरीके से क्रियान्वयन होना चाहिए ताकि उन्हें सरकारी नौकरियों और शिक्षा में अवसर मिलें।
- कानूनी सुधार किए जाने चाहिए ताकि दलित महिलाओं के खिलाफ अपराधों में त्वरित न्याय मिले।
- सामाजिक जागरूकता अभियान चलाकर समाज में जातिगत और लैंगिक भेदभाव को समाप्त किया जा सकता है।
निष्कर्ष रूप में
दलित नारीवाद एक समावेशी और क्रांतिकारी आंदोलन है, जो जाति और लिंग दोनों के आधार पर होने वाले शोषण को समाप्त करने की दिशा में काम करता है। जब तक जातिगत और लैंगिक समानता स्थापित नहीं होती, तब तक दलित महिलाओं का सशक्तिकरण अधूरा रहेगा।
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6. समकालीन दलित महिला लेखिकाएँ और उनके विचार
समकालीन दलित महिला लेखिकाएँ जाति, लिंग, वर्ग और सामाजिक अन्याय के अनुभवों को साहित्य और अकादमिक विमर्श के माध्यम से सामने ला रही हैं। इन लेखिकाओं ने दलित महिलाओं के संघर्षों, उनके अधिकारों और उनके समाज में स्थान को मुख्यधारा की बहस का हिस्सा बनाया है।
I. कौसल्या बैसंत्री (Kausalya Baisantri)
मुख्य विचार:
- पहली दलित महिला आत्मकथाकारों में से एक मानी जाती हैं।
- उन्होंने अपनी आत्मकथा में जातिगत और लैंगिक दोहरे उत्पीड़न का चित्रण किया।
- उनका लेखन दलित महिलाओं की वास्तविक स्थिति को उजागर करता है।
प्रमुख कृति:
- "दोहरा अभिशाप" (Dohra Abhishaap) – इसमें दलित महिलाओं को समाज में दोहरे भेदभाव का सामना करने की कहानी को उजागर किया गया है।
II. ऊर्मिला पवार (Urmila Pawar)
मुख्य विचार:
- दलित महिलाओं के संघर्ष और उनके आत्म-सशक्तिकरण पर केंद्रित लेखन।
- उन्होंने अपने अनुभवों को आत्मकथात्मक और कथा-साहित्य दोनों रूपों में व्यक्त किया।
- मराठी दलित साहित्य की प्रमुख हस्ती।
प्रमुख कृति:
- "आयदान" (Aaydaan, 2003)– यह आत्मकथा दलित महिला के रूप में उनके जीवन के संघर्षों को दर्शाती है।
III. बबीता (Babita)
मुख्य विचार:
- उन्होंने जातिगत भेदभाव, यौन उत्पीड़न और दलित महिलाओं के अधिकारों पर शोध किया।
- दलित नारीवाद को विश्लेषणात्मक और राजनीतिक दृष्टिकोण से देखने की प्रवृत्ति।
प्रमुख कृति:
- "Dalit Women: Issues and Perspectives"
IV. सुकिर्ता भार्गव (Sukirtharani)
मुख्य विचार:
- तमिल दलित साहित्य की प्रमुख महिला कवयित्री।
- उनके लेखन में दलित महिलाओं के जीवन, उनकी इच्छाओं, पीड़ाओं और संघर्षों का चित्रण होता है।
- वे समाज में दलित महिलाओं की स्थिति को चुनौती देने वाली आवाज़ों में से एक हैं।
प्रमुख कृति:
- "Kaipattri Yen Kanavu Kel" (Holding My Dreams)
V. अनीता भारती (Anita Bharti)
मुख्य विचार:
- हिंदी दलित साहित्य में एक प्रमुख हस्ती।
- उन्होंने दलित महिलाओं के प्रति समाज के व्यवहार, उनकी आर्थिक स्थिति और उनके अधिकारों पर गहराई से लिखा है।
- वे दलित नारीवाद और सशक्तिकरण की एक प्रमुख समर्थक हैं।
प्रमुख कृति:
- "Dalit Women’s Writing and Questions of Subjectivity"
VI. जयश्री जगताप (Jayashree Jagtap)
मुख्य विचार:
- समकालीन दलित महिलाओं की शिक्षा, राजनीति और सामाजिक सशक्तिकरण पर लेखन।
- उन्होंने दलित महिलाओं के प्रति समाज के पूर्वाग्रहों और उनके अधिकारों पर ध्यान केंद्रित किया है।
प्रमुख कृति:
- "Women and Caste Discrimination in India"
7. सुनीता मकवाना (Sunita Makwana)
मुख्य विचार:
- उन्होंने दलित महिलाओं की आर्थिक और सामाजिक स्थिति पर काम किया है।
- उनके लेखन में जाति, लिंग और वर्ग के मुद्दों की गहरी समझ है।
प्रमुख कृति:
- "Dalit Women's Voices: Resistance and Change"
8. रंजना पाधी (Ranjana Padhi)
मुख्य विचार:
- दलित महिलाओं के श्रम अधिकारों और उनके शोषण पर केंद्रित लेखन।
- ग्रामीण और शहरी दलित महिलाओं की समस्याओं पर शोध।
प्रमुख कृति:
- "Those Who Did Not Die: Impact of Agrarian Crisis on Women in Punjab"
निष्कर्ष
समकालीन दलित महिला लेखिकाएँ न केवल साहित्य के माध्यम से बल्कि शोध, अकादमिक लेखन और राजनीतिक गतिविधियों के द्वारा भी दलित महिलाओं के मुद्दों को प्रमुखता से उठा रही हैं। ऊर्मिला पवार, कौसल्या बैसंत्री, सुकिर्ता भार्गव, अनीता भारती, और रंजना पाधी जैसी लेखिकाएँ इस दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं।
ये लेखिकाएँ जाति, लिंग, वर्ग और सत्ता की संरचनाओं को चुनौती देती हैं और समाज में दलित महिलाओं के लिए न्याय और समानता की मांग करती हैं।
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गैर-दलित लेखिकाएँ जिन्होंने समकालीन भारत में दलित महिलाओं पर लिखा
हालांकि दलित महिलाओं के संघर्षों और उनके अधिकारों पर सबसे मुखर रूप से दलित महिला लेखिकाओं ने लिखा है, लेकिन कुछ गैर-दलित लेखिकाएँ और अकादमिक शोधकर्ता भी इस विषय पर महत्वपूर्ण काम कर चुकी हैं। उन्होंने दलित नारीवाद, जातिगत अन्याय और लैंगिक भेदभाव के जटिल पहलुओं पर गहराई से विश्लेषण किया है।
1. शर्मिला रेगे (Sharmila Rege)
मुख्य विचार:
- शर्मिला रेगे एक प्रमुख समाजशास्त्री और नारीवादी विचारक थीं, जिन्होंने दलित नारीवाद को मुख्यधारा के नारीवादी विमर्श में शामिल करने का प्रयास किया।
- उन्होंने "दलित नारीवाद" (Dalit Feminism) को एक स्वतंत्र और विशिष्ट विमर्श के रूप में प्रस्तुत किया।
- उनका मानना था कि मुख्यधारा का नारीवाद दलित महिलाओं के अनुभवों को दरकिनार करता रहा है, इसलिए उनके लिए एक अलग आंदोलन की जरूरत है।
प्रमुख कृति:
- "Writing Caste, Writing Gender: Narrating Dalit Women’s Testimonies" (2006)
- इसमें उन्होंने दलित महिलाओं की आत्मकथाओं और उनके संघर्षों को ऐतिहासिक संदर्भ में रखा।
- उन्होंने बताया कि दलित महिलाओं की समस्याएँ केवल लैंगिक भेदभाव तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वे जातिगत उत्पीड़न से भी प्रभावित होती हैं।
2. गैल टेम्पल (Gail Omvedt)
मुख्य विचार:
- गैल टेम्पल (Gail Omvedt) एक अमेरिकी मूल की भारतीय समाजशास्त्री थीं, जिन्होंने भारत में दलित और महिला आंदोलनों पर गहराई से काम किया।
- उन्होंने अंबेडकरवादी नारीवाद और दलित महिलाओं के संघर्षों को ऐतिहासिक और सामाजिक दृष्टिकोण से समझने की कोशिश की।
- उनके अनुसार, भारतीय समाज में जाति और लिंग का अन्याय एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, और बिना जातिगत उत्पीड़न को समाप्त किए, महिलाओं की पूर्ण स्वतंत्रता संभव नहीं है।
प्रमुख कृतियाँ:
- "Dalits and the Democratic Revolution" (1994)
- "We Shall Smash This Prison!" (1979)
3. अंजू मल्होत्रा (Anju Malhotra)
मुख्य विचार:
- अंजू मल्होत्रा ने दलित महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक स्थितियों पर शोध किया है।
- उन्होंने जातिगत भेदभाव को महिलाओं के सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन से जोड़कर विश्लेषण किया।
प्रमुख शोध:
- दलित महिलाओं की शिक्षा और स्वास्थ्य पर केंद्रित शोध।
- अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दलित नारीवाद को पहचान दिलाने में योगदान।
4. रोशिनी परमार (Roshni Parmar)
मुख्य विचार:
- उन्होंने दलित महिलाओं के खिलाफ हिंसा और जाति-आधारित भेदभाव पर शोध किया है।
- उनका कार्य महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों और न्याय प्रणाली में मौजूद जातिगत भेदभाव पर केंद्रित रहा है।
प्रमुख शोध:
- "Caste and Gender: Intersectionality in Indian Society"
5. विद्या भूषण रावत (Vidya Bhushan Rawat)
मुख्य विचार:
- विद्या भूषण रावत एक सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक हैं, जिन्होंने दलित महिलाओं के हाशिए पर धकेले जाने के मुद्दे को उठाया है।
- उन्होंने दलित महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण, शिक्षा और सामाजिक न्याय पर जोर दिया।
प्रमुख शोध एवं लेखन:
- "Dalit Women and Their Struggle for Justice"
6. कांची (Kanchana Mahadevan)
मुख्य विचार:
- कांची महादेवन ने दलित महिलाओं के अधिकारों को मुख्यधारा के नारीवाद से जोड़ने का प्रयास किया।
- उन्होंने अम्बेडकरवादी विचारधारा के अंतर्गत दलित नारीवाद की पुनर्व्याख्या की है।
प्रमुख शोध:
- "Dalit Feminism and the Politics of Representation"
निष्कर्ष
शर्मिला रेगे, गेल ओमवेट, अंजू मल्होत्रा, रोशिनी परमार और अन्य गैर-दलित लेखिकाओं ने दलित महिलाओं की समस्याओं को व्यापक संदर्भ में प्रस्तुत किया है। इन्होंने जाति और लिंग के अंतर्संबंधों को उजागर किया और दिखाया कि किस प्रकार जातिगत उत्पीड़न ने दलित महिलाओं के जीवन को प्रभावित किया है।
इन लेखिकाओं ने दलित नारीवाद को केवल लैंगिक स्वतंत्रता की लड़ाई तक सीमित न रखते हुए, सामाजिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य से भी देखा है। इनके कार्यों ने दलित महिलाओं के संघर्षों को मुख्यधारा के विमर्श में शामिल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
दलित नारीवाद केवल लैंगिक समानता की बात नहीं करता, बल्कि जातिगत उत्पीड़न और सामाजिक बहिष्कार की भी आलोचना करता है। यह आंदोलन उन दलित महिलाओं की आवाज़ को सामने लाने का कार्य करता है, जो सदियों से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हाशिए पर थीं।
दलित नारीवाद केवल लैंगिक समानता की बात नहीं करता, बल्कि जातिगत उत्पीड़न और सामाजिक बहिष्कार की भी आलोचना करता है। यह एक महत्वपूर्ण आंदोलन है जो भारत में महिलाओं की बहुस्तरीय समस्याओं को उजागर करता है और जाति व लिंग के आधार पर होने वाले भेदभाव को समाप्त करने की दिशा में कार्य करता है। दलित महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए शिक्षा, रोजगार, कानूनी अधिकारों और सामाजिक जागरूकता की दिशा में ठोस प्रयास आवश्यक हैं।
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