M.A.2nd Sem, KU-Women's Studies, Paper-3, Unit-VI (आदिवासी महिलाएँ) Class Notes
By
Dr. Farzeen Bano
Unit- VI: Tribal Women
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आदिवासी महिलाएँ
आदिवासी महिलाएँ अपने समुदायों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, अक्सर घरेलू जिम्मेदारियों के साथ आर्थिक योगदान को संतुलित करती हैं । जबकि कई जनजातियों में समानतावादी लैंगिक भूमिकाएँ होती हैं, आदिवासी महिलाओं को निरक्षरता और भेदभाव जैसी चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है, खासकर जब उनकी तुलना उनके पुरुष समकक्षों और अन्य सामाजिक समूहों की महिलाओं से की जाती है।
जनजातीय समाजों में महिलाओं की भूमिका पर अधिक विस्तृत जानकारी इस प्रकार है:
1. आर्थिक योगदान:
जनजातीय महिलाएं अक्सर घरेलू अर्थव्यवस्था का अभिन्न अंग होती हैं, तथा कृषि, पशुपालन और वन उत्पादों के संग्रहण में योगदान देती हैं।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के एक अध्ययन के अनुसार , कुछ मामलों में, कुछ गतिविधियों (जैसे कृषि श्रम और पशुपालन) में महिलाओं की कार्य सहभागिता दर पुरुषों की तुलना में भी अधिक है।
2. घरेलू और पारिवारिक जिम्मेदारियाँ:
आदिवासी महिलाएं घरेलू कार्यों, बच्चों की देखभाल और परिवार की भलाई के लिए भी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी उठाती हैं।
ईज्ञानकोश के अनुसार , कुछ मातृसत्तात्मक समुदायों में महिलाएं भूमि आवंटन और खेती के आयोजन में अग्रणी भूमिका निभाती हैं।
3. सामाजिक और राजनीतिक भूमिकाएँ:
टेलर एंड फ्रांसिस ऑनलाइन पर प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार , हालांकि कुछ जनजातीय समाजों को आम तौर पर समतावादी माना जाता है, फिर भी महिलाओं को शिक्षा, कार्य और स्वास्थ्य में भेदभाव और चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
हालांकि, आईवॉलंटियर ब्लॉग पोस्ट के अनुसार , कुछ आदिवासी महिलाएं भी अपने परिवारों और समुदायों में निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में महत्वपूर्ण प्रभाव रखती हैं।
4. मातृवंशीय बनाम पितृवंशीय प्रणालियाँ:
मातृसत्तात्मक व्यवस्था में वंश और उत्तराधिकार का पता महिलाओं के माध्यम से लगाया जाता है, तथा महिलाओं को पितृसत्तात्मक समाजों की तुलना में अधिक अधिकार और विशेषाधिकार प्राप्त हो सकते हैं।
INSIGHTS IAS के अनुसार, मेघालय की खासी, जैंतिया, गारो और लालुंग जनजातियाँ, साथ ही केरल की मप्पिला, मातृसत्तात्मक प्रणालियों का पालन करती हैं ।
5. चुनौतियाँ और भेदभाव:
जनजातीय महिलाओं को अक्सर अशिक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और आर्थिक अवसरों तक पहुंच की कमी से संबंधित चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
टेलर एंड फ्रांसिस ऑनलाइन पर प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार , उन्हें अपने समुदायों में भी भेदभाव का सामना करना पड़ सकता है ।
INSIGHTS IAS के अनुसार, वित्तीय शोषण, पुरुषों का पलायन और कृषि का महिलाओं द्वारा उपयोग भी आदिवासी महिलाओं के जीवन पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है ।
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आदिवासी अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भूमिका (Role of Women in Tribal Economy)
(i) कृषि में योगदान (Contribution in Agriculture)
- आदिवासी महिलाएँ पारंपरिक कृषि प्रणाली में मुख्य श्रमशक्ति होती हैं। वनोपज संग्रह, और पशुपालन में सक्रिय भागीदार होती हैं।
- वे बीज बोने, निराई-गुड़ाई, खाद निर्माण, फसल काटने और संग्रहण जैसे कार्यों में भाग लेती हैं।
- कई क्षेत्रों में महिलाएँ झूम खेती (shifting cultivation) की विशेषज्ञ होती हैं।
- जंगल से इकट्ठा की गई वस्तुएँ—जैसे महुआ, तेंदू पत्ता, औषधीय पौधे—आदिवासी अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं।
उदाहरण:
झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और पूर्वोत्तर राज्यों में आदिवासी महिलाएँ कृषि कार्य में पुरुषों के बराबर काम करती हैं।
(ii) हस्तशिल्प एवं कुटीर उद्योग (Handicrafts & Cottage Industries)
- आदिवासी महिलाएँ बांस और लकड़ी से बनी वस्तुएँ, मिट्टी के बर्तन, कपड़े की कढ़ाई (पारंपरिक शिल्पकला में निपुण होती हैं) आदि तैयार करती हैं।
- यह कार्य उन्हें आत्मनिर्भर बनाता है और संस्कृति को बनाए रखने तथा परिवार की आय बढ़ाने में सहायक होता है।
उदाहरण:
नागालैंड की महिलाएँ पारंपरिक बुनाई और ओडिशा की महिलाएँ डोकरा कला में माहिर होती हैं।
(iii) अनौपचारिक श्रम (Informal Labor)
- महिलाएँ खदानों, सड़क निर्माण, भवन निर्माण आदि में दिहाड़ी मजदूर के रूप में कार्य करती हैं।
- इन्हें श्रमिक अधिकार या सामाजिक सुरक्षा नहीं मिलती, जिससे वे आर्थिक रूप से असुरक्षित रहती हैं।
(iv) सामुदायिक जीवन और आर्थिक स्वायत्तता (Community Sustenance & Economic Autonomy)
- महिलाएँ जंगल से औषधीय जड़ी-बूटियाँ, लकड़ी, फल, और कंद इकट्ठा करती हैं।
- ये वस्तुएँ परिवार की आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ-साथ स्थानीय बाजारों में बेची जाती हैं।
- यह योगदान उन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाता है और सामुदायिक जीवन के संरक्षण में सहायक होता है।
-महिलाएँ पारंपरिक ज्ञान, रीति-रिवाज और भाषा को अगली पीढ़ी तक पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
- वे समुदाय की सामूहिकता और सामाजिक समरसता की वाहक होती हैं।
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आदिवासी महिलाएँ, विकास और हिंसा (Tribal Women, Development, and Violence)
(i) औद्योगीकरण और विस्थापन(Displacement due to Industrialization)
- खनन, बाँध, सड़कों और औद्योगिक परियोजनाओं के लिए बड़ी मात्रा में आदिवासी भूमि अधिग्रहित की जाती है।
- इससे आदिवासी समुदायों का सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक ताना-बाना टूट जाता है।
- महिलाएँ, जो मुख्य रूप से कृषि और वन-उपज पर निर्भर होती हैं, रोजगार और संसाधनों से वंचित हो जाती हैं।
उदाहरण:
नर्मदा बचाओ आंदोलन में देखा गया कि बाँधों के निर्माण से हजारों आदिवासी महिलाओं को उनकी भूमि, जल और आजीविका से बेदखल कर दिया गया।
(ii) यौन हिंसा और मानव तस्करी (Sexual Violence & Human Trafficking)
- विस्थापन के बाद महिलाओं को अस्थायी बस्तियों में रहना पड़ता है, जहाँ उनकी सुरक्षा कमजोर होती है।
- कई बार उन्हें यौन शोषण, बलात्कार और शारीरिक हिंसा का शिकार होना पड़ता है।
- गरीबी, बेरोजगारी और असहायता के कारण वे मानव तस्करी की शिकार भी बन जाती हैं।
उदाहरण:
छत्तीसगढ़ और झारखंड जैसे राज्यों में मानव तस्करी की घटनाएँ विशेष रूप से आदिवासी महिलाओं और लड़कियों को प्रभावित करती हैं।
(iii) कानूनी सुरक्षा की कमी (Lack of Legal Protection)
- आदिवासी महिलाओं को न्याय पाने में अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ता है:
- पुलिस में रिपोर्ट दर्ज नहीं होती
- कानूनी प्रक्रिया जटिल और समय-consuming होती है
- सामाजिक शर्म और बदनामी के डर से कई महिलाएँ चुप रहती हैं
- PESA (Panchayats Extension to Scheduled Areas Act) और Forest Rights Act जैसे कानूनों के बावजूद, ज़मीनी स्तर पर क्रियान्वयन बहुत कमजोर है।
निष्कर्ष
आदिवासी महिलाएँ भारतीय समाज की एक अहम लेकिन उपेक्षित शक्ति हैं। वे केवल परिवार के संचालन में ही नहीं, बल्कि आर्थिक गतिविधियों, सामाजिक मूल्यों और सांस्कृतिक धरोहर को बचाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
लेकिन तथाकथित विकास की प्रक्रिया—विशेष रूप से विस्थापन, औद्योगीकरण, और खनन परियोजनाएँ—इन महिलाओं के जीवन को अस्थिर बना देती हैं। उन्हें यौन हिंसा, आर्थिक हाशियाकरण, और कानूनी उपेक्षा का सामना करना पड़ता है।
आवश्यक उपाय:
- महिलाओं को भूमि अधिकार और सामुदायिक संसाधनों पर निर्णय लेने का अधिकार दिया जाए।
- पुनर्वास नीति में महिलाओं की विशेष ज़रूरतों को शामिल किया जाए।
- मानव तस्करी और यौन हिंसा के खिलाफ कड़े कानूनों का सख्ती से पालन हो।
- महिलाओं को कौशल विकास, स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाओं से जोड़ा जाए।
समानता, न्याय और सामाजिक सुरक्षा के बिना कोई भी विकास वास्तविक नहीं कहा जा सकता—विशेषकर तब जब वह सबसे अधिक हाशिए पर खड़ी महिलाओं की कीमत पर हो।
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आदिवासी राजनीतिक अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भूमिका (Women and Tribes – Tribal Political Economy)
आदिवासी राजनीतिक अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भूमिका विविध और महत्वपूर्ण है। वे आर्थिक गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग लेती हैं, जैसे कृषि, वन उत्पाद संग्रह, और पारंपरिक शिल्प। वे सामाजिक और राजनीतिक प्रक्रियाओं में भी योगदान करती हैं, लेकिन अक्सर उनके नेतृत्व और निर्णय लेने के अधिकार सीमित होते हैं।
आदिवासी महिलाओं की सामाजिक और राजनीतिक भूमिका:
परिवार:
आदिवासी महिलाएं परिवार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, जैसे बच्चे पालना, शिक्षा देना, और घर का काम करना। वे अक्सर परिवार के सदस्यों के लिए देखभाल करती हैं और उनकी जरूरतों को पूरा करती हैं।
सामाजिक संगठन:
राजनीति:
कुछ आदिवासी महिलाएं राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेती हैं, जैसे कि पंचायती राज में चुनाव लड़ना और स्थानीय मुद्दों पर आवाज उठाना।
आदिवासी आंदोलन:
आदिवासी महिलाएं आदिवासी आंदोलन में भी सक्रिय भूमिका निभाती हैं, जैसे कि पर्यावरण संरक्षण, भूमि अधिकार, और शिक्षा के लिए लड़ना।
आदिवासी महिलाओं के सामने चुनौतियाँ:
लिङ्ग आधारित भेदभाव:
आदिवासी महिलाएं लिङ्ग आधारित भेदभाव से ग्रस्त हैं, जैसे कि उन्हें कम वेतन मिलना, उन्हें कम अवसर मिलना, और उन्हें शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा तक पहुँचने में कठिनाई होना।
हिंसा:
आदिवासी महिलाएं घरेलू हिंसा, यौन हिंसा, और अन्य प्रकार की हिंसा से भी ग्रस्त हैं।
राजनीतिक भागीदारी की कमी:
आदिवासी महिलाओं को राजनीतिक निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिलता है।
आदिवासी महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए उपाय:
शिक्षा:
आदिवासी महिलाओं को शिक्षित करना आवश्यक है ताकि वे अपनी स्थिति में सुधार कर सकें।
आर्थिक रूप से सशक्त करना:
आदिवासी महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त करना भी आवश्यक है, जैसे कि उन्हें व्यवसाय करने के लिए संसाधन देना और उन्हें ऋण प्रदान करना।
राजनीतिक भागीदारी:
आदिवासी महिलाओं को राजनीतिक निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में उचित प्रतिनिधित्व देना आवश्यक है।
हिंसा से बचाव:
आदिवासी महिलाओं को घरेलू हिंसा, यौन हिंसा, और अन्य प्रकार की हिंसा से बचाने के लिए कानून लागू करने और जागरूकता बढ़ाने की आवश्यकता है।
सशक्तीकरण:
आदिवासी महिलाओं को सशक्त करने के लिए उन्हें आत्मनिर्भर बनाने, उनके अधिकारों को सुरक्षित करने, और उन्हें समाज में समान स्थान प्रदान करने की आवश्यकता है।
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विवाह और संपत्ति उत्तराधिकार (Marriage and Property Inheritance in Tribal Societies)
1. आदिवासी विवाह व्यवस्था (Tribal Marriage Systems)
आदिवासी समाज में विवाह और संपत्ति उत्तराधिकार की परंपराएँ मुख्यधारा की भारतीय सामाजिक संरचना से कुछ मायनों में भिन्न होती हैं। इनमें कई लचीले और सामूहिक मूल्य प्रणाली देखने को मिलती है, किंतु आधुनिक राज्य के बदलते पर्यावरण और बाजार व्यवस्था के प्रभाव ने इनमें बदलाव भी लाए हैं। नीचे इस विषय को विस्तार से समझाया गया है:
- आदिवासी समुदायों में विवाह की प्रणाली बहुधा सरल और रीति-रिवाज आधारित होती है।
- विवाह केवल व्यक्तिगत संबंध नहीं बल्कि दो परिवारों या समुदायों के बीच सामाजिक अनुबंध होता है।
- विवाह में महिलाओं की सहमति को कुछ समुदायों में महत्व दिया जाता है।
(I) विविध विवाह प्रथाएँ
भारत की जनजातियाँ भिन्न-भिन्न भौगोलिक, सांस्कृतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि से आती हैं, इस कारण विवाह की प्रथाओं में विविधता देखी जाती है:
- सहमति आधारित विवाह (Consent Marriage):
- अधिकतर आदिवासी समाजों में युवक-युवती की सहमति से विवाह किया जाता है।
- प्रेम विवाह को भी सामाजिक मान्यता प्राप्त होती है।
- कबीलाई या गोत्र विवाह:
- कुछ जनजातियों में गोत्र या कुल के बाहर विवाह आवश्यक माना जाता है (एक्सोगैमी)।
- वहीं कुछ जनजातियाँ गोत्र के भीतर विवाह की अनुमति भी देती हैं (एंडोगैमी)।
- बहुपत्नी विवाह (Polygyny):
- कुछ जनजातीय समाजों में पुरुष द्वारा एक से अधिक विवाह करना पारंपरिक रूप से स्वीकृत है, परंतु अब इसका प्रचलन घट रहा है।
(ii) ब्राइड प्राइस (Bride Price)
- अर्थ:
- यह वह राशि या उपहार होता है जो वर पक्ष द्वारा वधू पक्ष को दिया जाता है। इसे "वरदक्षिणा" भी कहा जाता है।
- यह महिला के श्रम, सुंदरता और सामाजिक योगदान की मान्यता के रूप में देखा जाता है।
- विशेषताएँ:
- यह प्रणाली दहेज प्रथा से भिन्न है क्योंकि इसमें वधू पक्ष पर बोझ नहीं पड़ता।
- यह महिला को मूल्यवान और सम्माननीय मानने का सामाजिक संकेत देती है।
- ब्राइड प्राइस विवाह को अनुबंध का रूप देता है जिसमें महिला की भूमिका केंद्रीय होती है।
- उदाहरण:
- संथाल, उरांव, हो (झारखंड), मिजो, गोंड (छत्तीसगढ़), और नगा (नागालैंड) जनजातियों में ब्राइड प्राइस की परंपरा आज भी प्रचलित है।
आधुनिक प्रभाव:
आर्थिक बोझ: वधू मूल्य की लागत कुछ परिवारों के लिए, विशेष रूप से सीमित संसाधनों वाले परिवारों के लिए, एक महत्वपूर्ण वित्तीय बोझ हो सकती है, जिससे संभावित रूप से कर्ज बढ़ सकता है और शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच में बाधा उत्पन्न हो सकती है।
लैंगिक असमानता: ऊंची दुल्हन की कीमत महिलाओं पर वित्तीय मूल्य लगाकर लैंगिक असमानता को बढ़ावा दे सकती है, जिससे शोषण या भेदभाव में वृद्धि हो सकती है।
वैवाहिक अस्थिरता: कुछ मामलों में, यदि दूल्हे का परिवार पूरी राशि का भुगतान करने में असमर्थ हो या दुल्हन का परिवार इसे पाने का हकदार समझता हो, तो दुल्हन की ऊंची कीमत वैवाहिक अस्थिरता में योगदान दे सकती है।
सकारात्मक पहलू:
सामुदायिक एकजुटता: वधू मूल्य दोनों परिवारों और व्यापक समुदाय के बीच संबंधों को मजबूत कर सकता है।
स्थिति और मान्यता: कुछ मामलों में, वधू मूल्य को स्टेटस सिंबल के रूप में देखा जा सकता है, जो दूल्हे के परिवार की सामाजिक स्थिति को दर्शाता है।
बातचीत की शक्ति: कुछ परिवारों के लिए, वधू मूल्य प्राप्त करने से उन्हें विवाह व्यवस्था में बातचीत करने की कुछ शक्ति मिल सकती है।
समकालीन मुद्दों:
आधुनिकीकरण: आधुनिकीकरण और शहरीकरण के बढ़ते प्रभाव के कारण कुछ क्षेत्रों में वधू मूल्य की पारंपरिक प्रथा में गिरावट आ रही है।
कानूनी चुनौतियाँ: कुछ समुदायों में वधू मूल्य की वैधता के संबंध में बहस और कानूनी चुनौतियां जारी हैं, विशेष रूप से मानवाधिकारों और लैंगिक समानता के उल्लंघन की इसकी क्षमता के संबंध में।
सांस्कृतिक संरक्षण: इसके अलावा पारंपरिक रीति-रिवाजों और प्रथाओं को संरक्षित करने के प्रयास भी किए जा रहे हैं, जिनमें वधू मूल्य भी शामिल है, साथ ही संभावित नकारात्मक प्रभावों से निपटने का भी प्रयास किया जा रहा है।
शिक्षा और जागरूकता: वधू मूल्य की जटिलताओं और इसके संभावित परिणामों के बारे में समुदायों को शिक्षित करने के प्रयास, अधिक न्यायसंगत और टिकाऊ विवाह प्रथाओं को बढ़ावा देने के लिए महत्वपूर्ण हैं।
2. संपत्ति उत्तराधिकार में महिलाओं की भूमिका (Women and Inheritance Rights in Tribal Societies)
(i) पारंपरिक व्यवस्था:
- अधिकतर आदिवासी समुदाय पितृसत्तात्मक होते हैं, जहाँ संपत्ति का उत्तराधिकार पुत्रों या पुरुषों के माध्यम से होता है। लेकिन कई जनजातियों में कुछ अपवाद हैं।
- बेटियों को दहेज या ब्राइड प्राइस को संपत्ति का विकल्प मानते हुए विरासत से वंचित कर दिया जाता है।
(ii) मातृसत्तात्मक जनजातियाँ (Matriarchal Tribes):
कुछ जनजातियाँ मातृसत्तात्मक या मातृवंशीय हैं, जहाँ महिलाएँ परिवार की प्रमुख होती हैं और संपत्ति की वारिस भी:
- उदाहरण:
- खासी (Meghalaya): संपत्ति सबसे छोटी बेटी को मिलती है (ultimogeniture)।
- गारो, जैंतिया: संपत्ति का उत्तराधिकार मातृवंश के अनुसार होता है।
(iii) वर्तमान स्थिति और चुनौतियाँ:
- औपनिवेशिक और पश्चात-औपनिवेशिक काल में आदिवासी भूमि पर कानूनी नियंत्रण के साथ महिलाओं के अधिकारों में गिरावट आई।
- भूमि का कानूनी स्वामित्व पुरुषों के नाम पर दर्ज होता है, जिससे महिलाएँ अधिकार से वंचित रह जाती हैं।
- Forest Rights Act (2006) ने महिलाओं के सामूहिक भूमि अधिकारों को मान्यता दी, लेकिन ज़मीनी स्तर पर इसका कार्यान्वयन कमजोर है।
भूमि अधिकारों पर पुरुषों का प्रभुत्व बढ़ता जा रहा है, विशेष रूप से जब जमीन का बाज़ारीकरण होने लगा है।
- राज्य की पुनर्वास नीतियों में पुरुष केंद्रित दृष्टिकोण के कारण महिलाएँ अपने भूमि अधिकारों से वंचित रह जाती हैं।
(iv) कानूनी एवं सामाजिक द्वंद्व (Legal and Customary Conflict):
- संविधान और कानून सभी महिलाओं को संपत्ति में समान अधिकार देते हैं, लेकिन आदिवासी क्षेत्रों में परंपरागत नियमो के अनुसार काम होता है।
- पांचवीं अनुसूची क्षेत्रों में स्थानीय रिवाजों को वरीयता दी जाती है, जिससे महिलाओं के अधिकार अस्पष्ट हो जाते हैं।
- इस कारण, आदिवासी महिलाएँ संपत्ति मामलों में न्याय के लिए अस्पष्ट कानूनी स्थिति में फँसी रहती हैं।
3. निष्कर्ष
आदिवासी समाज की विवाह और उत्तराधिकार व्यवस्था मुख्यधारा की तुलना में अधिक सामुदायिक और पारंपरिक है। विवाह में महिलाओं की स्थिति अपेक्षाकृत सम्माननीय रही है, परंतु संपत्ति के अधिकारों में वे अब भी हाशिए पर हैं।
प्रमुख बिंदु:
- ब्राइड प्राइस एक ऐसी प्रथा है जो महिलाओं को सामाजिक मूल्य प्रदान करती है।
- मातृसत्तात्मक जनजातियाँ महिलाओं को उत्तराधिकार में वरीयता देती हैं, लेकिन वे संख्या में कम हैं।
- आधुनिक कानूनी ढाँचा और परंपरागत सामाजिक नियमों के बीच विरोध महिलाओं के भूमि अधिकारों को कमजोर करता है।
सुझाव:
- कानूनी और customary कानूनों में सामंजस्य बैठाते हुए महिलाओं के उत्तराधिकार अधिकारों को स्पष्ट और लागू किया जाना चाहिए।
- विवाह और संपत्ति में महिलाओं की भूमिका को सशक्त करने के लिए सामाजिक जागरूकता, कानूनी सहायता, और नीतिगत हस्तक्षेप आवश्यक हैं।
"स्त्री जब तक भूमि से जुड़ी नहीं होगी, उसकी स्वतंत्रता अधूरी रहेगी।" – यह कथन आदिवासी समाज की महिलाओं के लिए और भी अधिक सार्थक है।
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